चंद शासकों की राजधानी रही चम्पावत में सवर्णों की सियासी दखल अंदाजी सदियों पुरानी हैं। ऐसा दौर था जब यहां से पूरे उत्तराखंड की सियासत की बागडोर संभाली जाती थी। इसमें ब्राह्मïण और ठाकुरों का योगदान बराबर रहता था। जमाना बदला पर इन जातियों का सियासी दखल आज भी कम नहीं हुआ हैं। राज्य गठन के बाद जिले की दोनों विधानसभा सीटों पर राजनैतिक दल जातीय गणित के हिसाब से टिकटों का बंटवारा करते आ रहे हैं। जिसको देखते हुए चम्पावत में भाजपा व कांग्रेस के ब्राह्मïण प्रत्याशी होने से यहां ठाकुर तो लोहाघाट में दोनों पार्टियों में ठाकुर प्रत्याशी होने से ब्राह्मïण खेवनहार बनेंगे। दोनों सीटों पर आमने सामने की टक्कर होने से संघर्ष खासा रोमांचक बना हुआ है। यही स्थिति अमूमन हर बार के विधान सभा चुनाव में देखने को मिली है।
वर्ष 1997 में अस्तित्व में आए इस जिले में चम्पावत विधानसभा सीट पहाड़ और मैदान में बंटी हुई है। 96016 वोटरों वाली सीट में हार जीत का आंकड़ा जातिगत वोटों के अलावा मैदानी वोटरों पर ज्यादा निर्भर है। यहां ठाकुर 52 फीसदी, ब्राह्मïण 24 फीसदी, दलित 18 फीसदी, मुस्लिम 4 फीसदी हैं। यह फैक्टर भी हार जीत के आंकड़ों में बाजी पलटा सकता है। सीट बंटवारें की बात करें तो विगत चार चुनाव में भाजपा दो बार ठाकुर तो दो बार ब्राहम्मण उम्मीदवार पर दाव खेल चुकी है। इस बार भाजपा ने ब्राहम्मण पर दाव खेला है। वहीं कांग्रेस ने पांचों बार एक ही ब्राहम्मण उम्मीदवार पर भरोसा जताया। जबकि लोहाघाट विधानसभा सीट पूरी तरह पहाड़ी हिस्से में हैं। यहां हर चुनाव में सियासी आंकड़े क्षेत्र, जाति के हिसाब से बदल जाते हैं। यहां ठाकुरों और ब्राह्मïणों की आबादी में मामूली अंतर है। ठाकुर 47 फीसदी, ब्राह्मïण 42 फीसदी, दलित 8 फीसदी हैं। मुस्लिम आबादी एक फीसदी से भी कम है। अलबत्ता, यहां ओबीसी की संख्या चम्पावत के मुकाबले ज्यादा है। 107240 की वोटर संख्या वाली इस सीट पर भाजपा व कांग्रेस के ठाकुर प्रत्याशी होने के कारण यहां ब्राह्मïणों की भूमिका काफी अहम मानी जा रही है। विगत विधान सभा चुनाव की बात करें तो भाजपा यहां दो बार ब्राहम्मण व दो बार ठाकुर उम्मीदवार को उतार चुकी है। पांचवी बार भी ठाकुर प्रत्याशी को मैदान में उतारा है। वहीं कांग्रेस ने पांचवी बार भी ठाकुर प्रत्याशी पर दाव खेला है। जिसमें दो बार जीत दर्ज की है।
पहाड़ में जब से पंचायती चुनावों में उम्मीदवारों की तादाद बढ़ी है, तभी से जातिगत आंकड़े काफी अहम हो गए हैं। जाति के अलावा बिरादरी, क्षेत्रवाद जैसी भावना पनपने लगी है। यही कारण है कि अब विधानसभा के उम्मीदवारों को सियासी दल इसी नजरिए से देखते हैं और टिकट वितरण का यही मुख्य आधार बनता जा रहा है। – डा. अशोक कुमार, राजनीतिक शास्त्र, राजकीय महाविद्यालय, चम्पावत