उत्तराखंड में 2017 में चौथी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हार का बड़ा कारण डबल इंजन भी रहा

उत्तराखंड में 2017 में चौथी विधानसभा के चुनाव को कांग्रेस शायद ही याद रखना चाहेगी। पार्टी को ऐसा अप्रत्याशित झटका लगा, जिसकी उम्मीद उसे शायद सपने में भी नहीं थी। ये नमो यानी नरेन्द्र मोदी लहर ही थी, जिसने उत्तराखंड में मजबूती से खड़ी पार्टी के पैर बुरी तरह उखाड़ दिए। चार चुनाव में कांग्रेस ने सबसे बुरे दौर से गुजरी। चार मैदानी जिलों से लेकर नौ पर्वतीय जिलों की 70 सीटों में से महज 11 सीटें ही पार्टी को मिल पाई थीं। आगे पांचवीं विधानसभा के चुनाव कांग्रेस के लिए अग्निपरीक्षा से कम नहीं हैं। पिछली खामियों से सबक लेकर जनता के बीच अपनी पैठ मजबूत करने और सत्ता में वापसी की चुनौती पार्टी के सामने है।पिछले चुनाव में कांग्रेस के अब तक के सबसे कमजोर प्रदर्शन का सबसे बड़ा कारण मोदी लहर को ही माना जाता है। सत्ता में होने के बावजूद पूरी ताकत से चुनाव लड़ रही कांग्रेस इस लहर के कहर के आगे टिक नहीं पाई। लहर के असर का अंदाजा इससे लग सकता है कि 2017 कांग्रेस की अब तक की सबसे बड़ी पराजय का सबब बन गई। 2007 में भी पार्टी विधानसभा चुनाव हारी थी, लेकिन उसे 21 सीटों पर जीत दर्ज कर विधानसभा में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई। मोदी लहर का ही असर रहा कि पौड़ी, चमोली, टिहरी, बागेश्वर व चम्पावत जिलों में कांग्रेस का खाता तक नहीं खुला। टिहरी जिले में एकमात्र धनोल्टी सीट कांग्रेस के बजाय निर्दलीय के खाते में गई। ऊधमसिंह नगर और नैनीताल जिलों में एक-एक सीट पर पार्टी को संतोष करना पड़ा।

कांग्रेस की हार में बड़ा कारण डबल इंजन भी रहा। प्रधानमंत्री मोदी से लेकर भाजपा के तमाम दिग्गज नेताओं ने केंद्र में भाजपा की मजबूत सरकार का हवाला देकर उत्तराखंड में मतदाताओं से समर्थन मांगा। डबल इंजन की उत्तराखंड जैसे पर्वतीय, छोटे और सीमित संसाधनों वाले राज्य के विकास में बड़ी भूमिका रही है। अपने संसाधनों से विकास के स्थान पर केंद्रीय मदद पर उत्तराखंड की निर्भरता डबल इंजन को सार्थक बना रहा है। राज्य को चार धाम आलवेदर रोड और ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेललाइन की सौगात दे चुके प्रधानमंत्री मोदी ने डबल इंजन पर जोर दिया तो राज्य के मतदाताओं ने कांग्रेस से ज्यादा भरोसा भाजपा पर करना उचित समझा। कांग्रेस डबल इंजन की तोड़ नहीं ढूंढ सकी।कांग्रेस की पराजय का महत्वपूर्ण कारण बड़ी फूट भी रहा। चुनाव से ऐन पहले पार्टी को बड़ी टूट से गुजरना पड़ा। राज्य के इतिहास में पहली बार किसी दल के 10 विधायकों ने उसका साथ छोड़ा तो वह कांग्रेस ही रही। चुनाव साल में मिले इस झटके से कांग्रेस को सरकार और संगठन, दोनों ही मोर्चों पर अंतर्कलह और कमजोरी का शिकार होना पड़ा। ऐसे मौके भी कई बार आए, जब सरकार और संगठन के बीच भी दूरी साफ तौर पर दिखाई दी। मजबूत समझे जाने वाले क्षत्रपों के बिखरने और टूटन की वजह से चुनाव में कई जिलों में पार्टी बुरी तरह लडख़ड़ा गई। ताकत का यही बिखराव पार्टी को चुनाव में भारी पड़ गया। कांग्रेस की इस फूट का लाभ उठाने में भाजपा सफल रही।

 

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